Wednesday 5 November 2014

भोगता उपभोक्ता -एक लम्बी कथा

भाग-१ 

जिनके आँख पड़े नहिं गर्द । कैसे जान सकें वो दर्द । 

ग्राहक भगवान होता है और भगवान की आँख में धूल सरे-आम झोंकी जा रही है । देवी तो आँखों में पट्टी बांधे है ; तो झोंकने वाले झोंकते रहते हैं धूल-गर्द ॥ 

बात २००३ के अप्रैल की है-केन्द्रीय विद्यालय का नया सत्र शुरू हो चुका था । १९८८, ८९ और ९२ में पैदा हुवे शिवा मनु और तनु को उनके स्कूल-बैग के साथ मोटर-साइकिल से स्कूल  पहुँचाने में असुविधा होने लगी थी । पारिवारिक अदालत ने एक कार खरीदने का मशविरा दिया । 

उस समय लगभग दो लाख में मारुति-८०० आती थी । डीलर की तरफ से ५००० की एसेसरीज भी अलग से गिफ्ट की जाती थी । २५ अप्रैल को मैंने मारुति के अधिकृत विक्रेता रिलायबल इंडस्ट्रीज को चेक से रूपये १ लाख २५००० का भुगतान अग्रिम के तौर पर कर दिया । शेष राशि के लिए SBI के लोन पेपर साइन करवाये गए ।  उनके एजेंट तमाल घोष और हमारे मित्र अरुण कुमार सिंह ने मुझे अग्रिम बधाई दी । परन्तु कार की डिलीवरी ९ मई से पहले ना हो सकी । कई बार हमने उनके शो रूम जाकर डिलीवरी देने की बात की परन्तु आल इण्डिया ट्रांसपोर्ट स्ट्राइक जैसे कई बहाने बताये गए । खैर हमारी मारुति हमारे घर आ गई । मैंने एक बड़ी राशि देकर कार अप्रैल में बुक कराई थी परन्तु मई में रूपये ५०००/- का वह गिफ्ट मुझे नहीं दिया गया । बताया गया वह गिफ्ट केवल अप्रैल के लिए ही था । 

नए वाहन के पूजन के लिए हम सपरिवार बैठ कर मंदिर की ओर चले । मेरे मित्र अरुण जी ही कार चला रहे थे-बच्चों ने गर्मी की शिकायत की तो उन्होंने फैन चला दिया । परन्तु यह क्या ??? कांच के छोटे बड़े टुकड़े हवा में तैरते हुवे बच्चों के चेहरे जख्मी कर गए । फैन तुरंत बंद कर दिया गया -मंदिर के बजाय हम डाक्टर के क्लीनिक पहुँच गए-
                                                                    क्रमश: